जीवन की पगडंडियों पे शायद ,
उस दो कदम का इंतज़ार था
पैर थक गए
मन अशांत था ,
साथ में कोई नहीं
साथी दूर कहीं,
पर अभी भी
शायद,
उस दो कदम का इंतज़ार था
पक्षी के उड़ने की इच्छा
जादुई पिंजरे में कैद थी,
नन्हे बच्चे की तरह
तारों को तोड़ लाने की इच्छा,
अब कहीं किसी कोने में दफन सी थी
किसी स्पर्श का ..
गहरी नींद से उठाने का इंतज़ार था
उसे देख खुद ही
हम बढ चलते
वो न सही
उसकी आहट ही सही,
प्रत्यक्ष न सही
रेत पे निशाँ ही सही…..
उसे ही देख हम जीवन की ओर बढ चलते …
शाम होने को आई ..
उस लालिमा के बीच एक परछाई सी
शायद , वही दो कदम.....
3 comments:
kya baat hai
yaar bahut acchi poem hai.
and it is very well complimented with the perfect snaps.
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